स्वागत है आप सभी का maharaja ranjit singh history part 3 मे | दोस्तों जैसा की हमने आपको पिछले भाग maharaja ranjit singh history part 2 मे बताया की कैसे महाराजा रणजीत सिंघ सिक्ख सिद्धांतो से भटक गये | आजके इस भाग मे हम जिक्र करने वाले है की महाराजा रणजीत सिंघ ने अंग्रेजो से कोनसा समझौता किया और उस से पहले कौन कौन से इलाके जीत कर पंजाब मे शामिल किये |
maharaja ranjit singh history part 3 | महाराजा रणजीत सिंह और अंग्रेज संधि
1808 तक रणजीत सिंह पंजाब और उसके आसपास के सबसे महान शासक बन गए थे। वह उस समय तक और आने वाले समय में भी इस क्षेत्र के सबसे बड़े क्षेत्र के महाराजा थे।
एशिया के इतिहास में इस क्षेत्र के केवल दो राजाओं का उल्लेख मिलता है, एक पोरस और दूसरे रणजीत सिंह का |
1809 में अंग्रेजों के साथ अमृतसर की संधि पर हस्ताक्षर करने से पहले, रणजीत सिंह ने शेखूपुरा और कांगड़ा (20 अगस्त 1808 को) पर भी कब्जा कर लिया था ।
रणजीत सिंघ ने अंग्रेजो से टकर लेने की वजाय उनसे दो समझौते करलिये पहला समझौता जनवरी 1806 और दूसरा समझौता 25 अप्रैल 1809 मे
ईस्ट इण्डिया कंपनी और रणजीत सिंघ के बीच इस समझौते के ऊपर दस्तखत हूवे यह समझौता रुपनगर मे सतलुज के किनारे हुआ था जहाँ यह समझौता हुआ था वह पीपल का पेड़ आजभी मौजूद है!
इस समझौते मे सतलुज दरिया को दो ताकतों के बीच मे सरहद मानलिया गया इसके मुताबिक पश्चिम की तरफ रणजीत सिंघ की हकुमत मानली गई और सतलुज के पूरव की और अंग्रेजो की हकुमत मानली गई|
इसके बाद रणजीत सिंह ने पश्चिम की ओर रुख किया। उसने जनवरी 1810 में गुजरात और खुशाब, फरवरी 1810 में साहीवाल, जून 1810 में हल्लोवाल, डोडा और वजीराबाद और नवंबर 1810 में डस्का पर कब्ज़ा कर लिया। 1811 में, उसने सिंहपुरिया और नक्कई मिस्लान के रचना-दुआब के इलाकों को भी छीन लिया।
1813 में अटक, सितंबर 1815 में जोध सिंह रामगरिया का क्षेत्र, 1818 में झंग और नवंबर 1818 में मुल्तान भी उनके नियंत्रण में आ गया था। इसके बाद जुलाई 1819 में कश्मीर, 1821 में मनकेरा और 1824 में नौशेरा को भी उनकी रियासत में शामिल कर लिया गया।
यानी सिंधु नदी से लेकर सतलुज नदी तक कपूरथला रियासत को छोड़कर पूरा इलाका रणजीत सिंह की रियासत का हिस्सा बन गया था.
इन पर्वतों में जम्मू, कांगड़ा, अखनूर, भीमबार, लखनपुर, नूरपुर, गुलेर, सीबा, कोटला, जसवां, दातारपुर भी उसके शासन में थे। रणजीत सिंह ने सिख मिस्लों, मुगलों, बलूचों, अफगानों, डोगराओं और पहाड़ी राजपूतों से रियासतें छीन लीं और उन्हें अपने अधीन कर लिया।
1824 के बाद डेरा इस्माइल खान (1831), पेशावर (1834), बन्नू, कोहट और डेरा गाजी खान (1836) मे महाराजा रणजीत सिंघ के नियंत्रण में आ गये थे।
साहीवाल पर कब्ज़ा
झज़्ज़र दोआब (चिनाब और झेलम के बीच के क्षेत्र) में, विशेष रूप से साहीवाल में (जिसे अंग्रेजों ने मिंटगुमरी बना दिया था) प्रभुत्व स्थापित किया।
इस इलाके मे फ़तेह खान की हकुमत थी फतेह खान बहुत तगड़ा शाशक था उनका किला बहुत मजबूत था (जो आज भी साहीवाल से पाकपट्टन रोड पर हरबंसपुरा और चक नंबर 47/5 के बीच स्थित है, अब इसके पास एक नया शहर ‘न्यू मालगादा सिटी’ बनाया गया है)।
साहीवाल पर कब्जा
झज्ज दुआब, और जिहलम के बीच वाले हिस्से मे खास कर साहीवाल जिसे अंग्रेजो ने मिनटगुमरी बना दीया था
यहाँ पर फतिह खान की हकुमत थी फतिह खान एक ताकतवर शाशक था उसका किला बहुत मजबूत था
25 जनवरी 1810 को महाराजा रणजीत सिंह ने साहीवाल शहर को घेर लिया।
और इन दोनों सेनाओ के बीच युद्ध हुआ और फतिह खान इस युद्ध मे हार गया हार के बाद उसने रणजीत सिंघ के सामने एक पेशकश रखी
फ़तेह खाँ युद्ध के बदले 80 हजार रुपये देने को तैयार हो गया, जिस पर रणजीत सिंह ने फौज का घेरा हटा लिया दूसरी ओर, फ़तेह खान या तो वादे के बावजूद रकम इकट्ठा करने में असफल रहा या उसने अपना इरादा बदल दिया।
जब रकम रणजीत सिंह तक नहीं पहुंची तो उन्होंने अपने दूत को रकम लेने के लिए भेजा। जब वह खाली हाथ लौटे तो महाराजा रणजीत सिंह ने 7 फरवरी 1810 को शहर को फिर से घेर लिया
जब घेराबंदी कई दिनों तक जारी रही, तो शहर में भोजन और पशुओ के चारे का अकाल पड़ने लगा, इसलिए फ़तेह खान ने अपने हथियार डाल दिए। वही साहीवाल पर रणजीत सिंह का कब्जा हो गया और फतेहखान को कैद करके लाहौर लेजाया गया और किले मे शाही केदी की तरहा रखा गया |
मंदिरो को दान दीया गया
रणजीत सिंघ का ज्यादा तर खजाना हिन्दू मंदिरो को दान दीया गया |
। 1811 में, खुशहाल चंद मिश्र (यूपी का एक ब्राह्मण) उनका सामंत बन गया। इसी तरह, ब्राह्मण मिश्र बेली राम उनके कोषाध्यक्ष बन गए। रणजीत सिंह का धार्मिक अर्थ (वह जो भिक्षा देने का निर्णय लेता है।
वजीर होने के कारण उसका अधिकांश खजाना हिंदू मंदिरों में जाता था। यह वजीर जानबूझकर दिखावे के तौर पर दरबार साहिब में कुछ राशि दान करता था।
लेकिन वह कई गुना अधिक मंदिरो मे दान करता था) उससे भी अधिक। रणजीत सिंह के करोड़ों रुपये कांगड़ा, ज्वालामुखी, जम्मू, काशी के मंदिरों पर सोना चढ़ाने के लिए कुरुक्षेत्र, हरद्वार और काशी (बनारस) के ब्राह्मणों को दिए गए। गोरख नाथ, ध्यानपुर, पंडोरी और धमतान के जोगियों के डेरे दर्जनों शिवालयों और मंदिरों को भी रणजीत सिंह से बड़ी रकम मिलती रही। उदासियों को बहुत सारी जमीन दी गई।
वहा पर उन्होंने डेरे और अखाड़े बनालिए यहाँ पर सिक्ख फलसफ़े के उलट मर्यादा चलाई जाती थी |
बाद मे इन ढेरों मे सिक्ख त्वारीख फ़िलोसफी और गुरबानी को बिगाड़ने वाली कई किताबें भी लिखी गई ,
हालाँकि यह सारी जमीन गुरु दा चक (अमृतसर) दरबार की थी | जिसे 1564 मे गुरु रामदास ज़ी ने तुंग गाँव के लोगो से पैसे देकर खरीदा था इसे आगे बेचा या दान नहीं दीया जा सकता था |
जल्द ही खुशहाल चंद ब्राह्मण की कोशिशो से रणजीत सिंघ ने दशेहरा, दीपावली, होली, और काफ़ी हिन्दू त्यौहार भी मनाने शुरू कर दिये थे |
इस मुहिम के तहत सबसे पहले दशेहरा 2अक्टूबर 1813 मे मनाना शुरू कीया गया | मिश्रा ब्राह्मणों के प्रभाव में, रणजीत सिंह ने गुरु साहिब द्वारा अस्वीकार किए गए बेदी और सोढ़ी परिवारों को भी गुरु कहकर अच्छी रकम दी।
गुरुद्वारों को दी जाने वाली रकम भी पुजारी और सरबराह ने डकारली रणजीत सिंह के धार्मिक अनुदान में से 75 प्रतिशत हिंदुओं को, 10 प्रतिशत सिखों को और 15 प्रतिशत अन्य समुदायों और संप्रदायों को दिया गया।
रणजीत सिंह ने एक ब्राह्मण, हुलिया राम मिस्र को अमृतसर का खजाँची (टैक्स कलेक्टर) भी बनाया। इस रुलिया राम मिस्र की हवेली अमृतसर में गुरुद्वारा टाहली साहिब के सामने थी।
1947 के बाद भी उनके वारिस उस इमारत में रहते थे. (अमर सिंह, ज़फ़रनामा रणजीत सिंह, 1815 की परिस्थितियाँ)। उसी लेखक के अनुसार, पंडित गंगा राम दीवान को भी सर्वोच्च पदों में से एक दिया गया था
अकाली फूला सिंह उन्हीं गंगा राम की सिख विरोधी गतिविधियों के कारण अमृतसर छोड़कर आनंदपुर चले गए थे।
इन ब्राह्मण सलाहकारों ने रणजीत सिंह से उनके खालसे के झंडे मांगे थे। और फिर उसका रंग बदल कर पहले नीले से सफेद और फिर केसरिया/नारंगी/पीला करदिया
रणजीत सिंह को इतना भी पता नही चला की कब ब्राह्मणों और डोगरो ने उसका दरबार, ताज, राजकोष, सेना और निज़ाम पर कब्ज़ा कर लिया
उन्होंने सिखों को रणजीत सिंह के सलाहकारो से दूर रखने मे उल्लेखनीय सफलता हासिल की थी। ऐसे राज्य का हश्र कोई भी आसानी से समझ सकता है।
रणजीत सिंह के लिए लड़ने वाले सेनापति थे अकाली फूला सिंह, हुकुमा सिंह चिमनी, निधान सिंह पंजहतथा , निहाल सिंह और शाम सिंह अटारीवाले, हरि सिंह नलवा, धन्ना सिंह मालवई, मजीठिया, छाछी और अहलूवालीया सरदार थे |
। लेकिन उनका पक्ष सबसे अधिक हिंदुओं पर रहा, चाहे , पहाड़िया हों या पंजाबी हिंदू हों। इनमें मुख भाई ब्राह्मण, भिवानी दास, खुशाल चंद, राम सिंह, सुखराज, गंगा राम, बेली राम, रूप लाल, किशन लाल, अयुध्या प्रसाद, दीना नाथ,
मिस्र दीवान चंद, डोगरे ध्यान चंद, गुलाब चंद, सुचेत राम, हिरन सिंह, पंजाबी हिंदू: दीवान मोहकम चंद, दीवान धनपत राय, दीवान मोती राम दीवान सावन मुल, दीवान किरपा राम, दीवान अयोध्या प्रसाद, दीवान सुख दयाल, दीवान सरब दयाल अतहर मल चोपड़ा के अलावा मुस्लिम फकीर भाई (अज़ीज़-उद-दीन नूर-उद-दीन और इमाम-उद-दीन) भी थे।
वस्ती राम के बेटे गोबिंद राम और राम सिंह भी रणजीत सिंह से बड़े नजराने हासिल किया करते थे।
ब्राह्मण और डोगरे रणजीत सिंह के दरबार के महान सरदार थे। जमींदार खुशहाल चंद (बाद में खुशहाल सिंह), एक ब्राह्मण, 1811 में ‘डेओडीवाला’ (चैंबरलोनाइट) बन गया (कनिंघम, पृष्ठ 1605 61)। 1815 में दीना नाथ दीवान बने और 1817 में ध्यानचंद डोगरा (बाद में ध्यान सिंह) डोगरा डेओड़ीवाला बन गये।
उसी वर्ष ब्राह्मण तेजाराम जनरल (बाद में तेजा सिंह) और भैया राम लाल कुमेदान जनरल बने। 1822 में गुलाब दास डोगरा (बाद में सिंह) डोगरा जम्मू के राजा बने, 1828 में ध्यान चंद डोगरा वज़ीर बने, उसी वर्ष ध्यान चंद डोगरा के पुत्र हीरा (सिंह) राजा बने। अब लगभग सम्पूर्ण शासन व्यवस्था जम्मू के डोगराओं तथा भारत के ब्राह्मणों के हाथ में थी।
यह रणजीत सिंह की सरकार की संरचना थी जिसमें शहरों और गांवों में मुसलमान तो दिखते थे लेकिन सिख कहीं नज़र नहीं आते थे।
तो दोस्तो यह था maharaja ranjit singh history part 3 |
अब इसके बाद कैसे रणजीत सिंघ ने अटक पर कब्जा कीया और कैसे कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंघ को मिला इसकी जानकारी हम आपको अगले भाग maharaja ranjit singh history part 4 मे देंगे |
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maharaja ranjit singh history part 2
maharaj ranjit singh history part – 4
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