सब्र, शुक्र, रज़ा, लोभ का त्यागी, अपने प्रारब्ध पर संतुष्ट रहना, जो प्रभू-परमेश्वर ने दिया उस में प्रसन्न रहना। 

संतोष परमेश्वर की दी हुई दातों में से सबसे उत्तम सिरमौर दात है। संतोष मनुष्य की दुनियां में बहुत खास रूतबा रखता है।  

संतोष धर्म का मुख्य अंग है। संतोष को समझदारों ने ज्ञान का गुरू अनुमानित किया है। संतोष मनुष्य को खुशी और संतुष्टता प्रदान करता है। 

समझदारों के कथनानुसार संतोष धर्म का सिर है, जैसे सिर के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, बेजान हो जाता है।  

इसी तरह संतोष के बिना धर्म भी बेजान है। धर्म की महानता संतोष से ही है। 

संतोष ही पाप कर्मों का रक्षक है। संतोषी मनुष्य बड़ी से बड़ी कुरबानी कर सकता है।  

बड़ी-बड़ी मुसीबतों में भी सब्र, शुक्र का धारणी बनकर, प्रसन्न चित्त रहकर मालिक को याद करता है। 

संतोषी मनुष्य की लेने की वृत्ति खत्म हो जाती है। संतोषी हमेशा दे कर खुश होता है। संतोषी सेवा करवाता नहीं, सेवा कर के प्रसन्न होता है।  

संतोषी हमेशा अपनी इच्छाओं को सीमा में रखकर, पाप कर्म से बचा रहता है। संतोषी खाने के स्वादों को पूरा करने के लिए नहीं जीता बल्कि शरीर को जीवित रखने के लिए खाता है। 

संतोषियों को प्रभू किसी किस्म की कमी नहीं रहने देता, बल्कि परमेश्वर बेअन्त बख्शिशें करके, उनको ज़्यादा से ज़्यादा प्रदान करता है। वाहिगुर नानक पातशाह जी का फुरमान